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नव वर्ष पर कविता के माध्यम से मेरा ये आग्रह है की न्याय की लड़ाई के लिय जो ये कदम उठे हें अब वो रुकने नहीं चाहियें.
बाधाएं हो घोर घिरी
भ्रकुटी ताने सम्मुख खड़ी
हंसकर लड़कर सीना ताने
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
न्याय का युद्ध अन्याय से आज है
पथरीली शूलों की राह है
प्रगति हेतु इस अग्निपथ पर
बढ़ना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
भोर पूर्व के घोर अन्धकार में
सत्य के प्रकाश की आशा में
संबल की मशाल पकड़कर
आत्मविश्वाश से भरे खड़े
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
सत्यता कहाँ खो गई
स्वतंत्रता कहाँ सो गई क
अराजकता के पंजों में
क्यों ये बांध गई अ
अब ये बस बंधन खुले
चलना नेहोगा बिना रुके
चलना बहोगा बिना रुके
सत्ता के गलियारों के
झूठे और मक्कारों के
हिल जाय हर ताजो तख़्त
आओ ऐसी हुंकार भरें
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
चिरनिंद्रा में सोये जो
भोग विलास में खोये जो
आओ ऐसा शंखनाद करें
के इनकी चिरनिंद्रा खुले
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
हम निहत्थे हें तो क्या
जूझने का दम भरा
जूझेंगे मरते दम तक
बस सदा स्मरण रहे
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
ये कदम बढे जो जोश से
संभलो डगमगा ना ये जाएँ
तुम्हें मात्रभूमि का वास्ता
ये जोश न ठंडा पड जाए
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
पुण्य भरे इस ध्येय पथ पर न
चुनोतियों का आलिंगन कर
सार्वभौमिक कल्याण हेतु
सर्वप्रथम ये कर्त्तव्य बने
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
चलना होगा बिना रुके
दीपा सिंह
वन्दे मातरम्
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